श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  11.5.41 
 
 
देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां
न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना य: शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥ ४१ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन, जो व्यक्ति सभी भौतिक कर्तव्यों को त्याग कर उन मुकुंद के चरण कमलों की शरण में है, जो सभी को आश्रय प्रदान करते हैं, उसे देवताओं, ऋषियों, सामान्य जीवों, रिश्तेदारों, मित्रों, मानव जाति या अपने पुरखों का भी ऋणी नहीं रहना पड़ता है। चूँकि सभी प्राणियों के ये वर्ग सर्वोच्च प्रभु के ही अंश हैं, अतः जिसने प्रभु की सेवा में आत्मसमर्पण कर दिया है, उसे ऐसे व्यक्तियों की अलग से सेवा करने की आवश्यकता नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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