श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 3: माया से मुक्ति  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  11.3.54 
 
 
आत्मानम् तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं सम्पूजयेद्धरे: ।
शेषामाधाय शिरसा स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम् ॥ ५४ ॥
 
अनुवाद
 
  पूजक को खुद को प्रभु का नित्य दास मानकर ध्यान में पूर्णतया लीन होना चाहिए और इस तरह यह स्मरण करना चाहिए कि अर्चाविग्रह उसके हृदय में भी स्थित है, अर्चाविग्रह की भलीभाँति पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात, उसे अर्चाविग्रह के साज-सामान यथा बची हुई फूल-माला को अपने सिर पर धारण करना चाहिए और आदरपूर्वक अर्चाविग्रह को उसके स्थान पर वापस रखकर पूजा का समापन करना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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