नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा
प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिष: स्वा: ।
शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयात्ममूल-
मर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धि: ॥ ३६ ॥
अनुवाद
न तो मन, न बोल, देख, समझ, प्राण या कोई भी इंद्रिय उस परम सत्य में जा नहीं सकती है, जैसे छोटे-छोटे चिंगारी मूल अग्नि को नहीं छू सकते, जिससे वो खुद ही उत्पन्न हुए हैं। यहाँ तक कि वेदों की प्रामाणिक भाषा भी परम सत्य का वर्णन नहीं कर सकती क्योंकि स्वयं वेद ही इस संभावना को नकारते हैं कि सच्चाई को शब्दों में कहा जा सकता है। पर अप्रत्यक्ष संकेत से वैदिक ध्वनि परम सत्य का सबूत देती है, क्योंकि परम सत्य के बिना वेदों में कई निषेधों का कोई लक्ष्य नहीं होगा।