एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहृदम् ।
परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु ॥ २९ ॥
अनुवाद
जो भी अपने जीवन के परम स्वार्थ को पाने की इच्छा रखता है उसे उन लोगों के साथ मैत्री करनी चाहिए जिन्होंने कृष्ण को अपने जीवन का स्वामी मान लिया है। इसके अलावा उनमें सभी जीवों की सेवाभाव की भावना भी उत्पन्न होनी चाहिए। उसे विशेष रूप से मानव-रूप में जन्मे लोगों की सेवा करनी चाहिए और उनमें से भी खास तौर पर उन लोगों की जो धार्मिक आचरण के सिद्धांतों का पालन करते हैं। धार्मिक व्यक्तियों में से भगवान् के शुद्ध भक्तों की सेवा की जानी चाहिए।