नानुतृप्ये जुषन्युष्मद्वचोहरिकथामृतम् ।
संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यस्तत्तापभेषजम् ॥ २ ॥
अनुवाद
यद्यपि मैं आपके द्वारा वर्णित भगवान् की महिमा के अमृत को पी रहा हूँ, फिर भी मेरी प्यास नहीं बुझी। प्रभु और उनके भक्तों के ऐसे अमृतमयी वर्णन मेरे जैसे संसार के तीनों तापों से पीड़ित बद्धजीवों के लिए औषधि का काम करते हैं।