पातालतलमारभ्य सङ्कर्षणमुखानल: ।
दहन्नूर्ध्वशिखो विष्वग्वर्धते वायुनेरित: ॥ १० ॥
अनुवाद
यह अग्नि भगवान संकर्षण जी के मुंह से निकलती है और पाताल लोक से आरंभ करके बढ़ती जाती है। इसके शोले प्रबल वायु से प्रेरित होकर ऊपर उठते हुए चारों दिशाओं की हर वस्तु को झुलसा देते हैं।