श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 28: ज्ञान-योग  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  11.28.2 
 
 
परस्वभावकर्माणि य: प्रशंसति निन्दति ।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशत: ॥ २ ॥
 
अनुवाद
 
  जो व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के गुणों और व्यवहार की प्रशंसा या आलोचना करता रहता है, वह मायावी भ्रमों में उलझकर शीघ्र ही अपने सर्वोत्तम हितों से विचलित हो जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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