नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा ।
एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्यया: ॥ ५ ॥
अनुवाद
जब दार्शनिक ये कहते हैं कि "मैं इस विशेष प्रसंग का उसी तरह से विश्लेषण करना नहीं चाहता जैसे तुम चाहते हो," तब मैं समझता हूँ कि मेरी अपनी प्रेरणाएँ ही उनकी विश्लेषणात्मक असहमति को जन्म दे रही हैं।