स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तित: ।
कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियम: कृत: ।
गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया ॥ २६ ॥
अनुवाद
यह दृढ़तापूर्वक घोषित है कि योगियों का अपने आध्यात्मिक पदों पर निरंतर बने रहना ही वास्तविक पुण्य है और जब कोई योगी अपने नियत कर्तव्य की अवहेलना करता है, तो वह पाप होता है। जो पाप तथा पुण्य के इस मानदंड को अपनाता है और इंद्रियतृप्ति के साथ समस्त पुरानी संगति को सच्चे दिल से त्यागने की इच्छा रखता है, वह भौतिकवादी कार्यों को वश में कर लेता है, जो स्वभाव से अशुद्ध होते हैं।