श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 2: नौ योगेन्द्रों से महाराज निमि की भेंट  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  11.2.41 
 
 
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत् किंच भूतं प्रणमेदनन्य: ॥ ४१ ॥
 
अनुवाद
 
  भक्त को किसी भी चीज़ को भगवान श्री कृष्ण से अलग नही देखना चाहिए। आकाश, आग, हवा, पानी, मिट्टी, सूरज तथा दूसरे तारे, सभी जीव, दिशाएँ, पेड़ और दूसरे पौधे, नदियाँ और सागर—जैसा भी भक्त अनुभव करता है उसे कृष्ण का विस्तार मानना चाहिए। इस प्रकार से सृष्टि के भीतर के सभी चीजों को भगवान हरि के शरीर के रूप में देखते हुए भक्त को भगवान के शरीर के संपूर्ण विस्तार को नमस्कार करना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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