धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि न: श्रुतये क्षमम् ।
यै: प्रसन्न: प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यज: ॥ ३१ ॥
अनुवाद
यदि आप यह समझते हैं कि मैं इन कथाओं को ठीक से सुनने में समर्थ हूँ, तो कृपया बताएँ कि परम प्रभु की भक्ति में किस तरह से संलग्न हुआ जाता है? जब कोई जीव अपनी प्रेमपूर्ण सेवा परम प्रभु को अर्पित करता है, तो परम प्रभु तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं और बदले में आत्मसमर्पण करने वाली आत्मा को स्वयं को भी दे देते हैं।