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श्लोक 43
श्लोक
11.16.43
यो वै वाङ्मनसी सम्यगसंयच्छन् धिया यति: ।
तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद
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जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि के द्वारा अपनी वाणी और मन को पूर्ण रूप से वश में नहीं कर पाता, उसके आध्यात्मिक संकल्प, तपस्या और दान ऐसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे कच्ची मिट्टी के घड़े से पानी बह जाता है।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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