एवं गुरूपासनयैकभक्त्या
विद्याकुठारेण शितेन धीर: ।
विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्त:
सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम् ॥ २४ ॥
अनुवाद
धैर्य बरतते हुए तथा गुरु की सावधानी से सेवा करते हुए एक शुद्ध और समर्पित भक्ति का विकास करना चाहिए और साथ ही दिव्य ज्ञान की तेज कुल्हाड़ी से आत्मा को आच्छादित सूक्ष्म भौतिक आवरण को काट डालना चाहिए। भगवान के साक्षात्कार होने पर अपने भीतर की तार्किक बुद्धि रूपी कुल्हाड़ी का त्याग कर देना चाहिए।
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध ग्यारह के अंतर्गत बारहवाँ अध्याय समाप्त होता है ।