अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममोदृढसौहृद: ।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक् ॥ ६ ॥
अनुवाद
गुरु का सेवक अथवा शिष्य को झूठी शान-शौकत से रहित होना चाहिए और स्वयं को कभी भी कार्य का करने वाला नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होना चाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर और समाज सहित सभी इन्द्रिय-विषयों पर स्वामित्व के भाव को छोड़ देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मित्रता की भावना से युक्त होना चाहिए और उसे कभी भी पथभ्रष्ट या मोहग्रस्त नहीं होना चाहिए। सेवक या शिष्य में सदैव आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए और निरर्थक बातचीत से बचना चाहिए।