आचार्योऽरणिराद्य: स्यादन्तेवास्युत्तरारणि: ।
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धि: सुखावह: ॥ १२ ॥
अनुवाद
गुरु की उपमा यज्ञ की उस निचली काष्ठ (लकड़ी) से की जा सकती है, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ठ से, और गुरु द्वारा शिष्य को दिया जाने वाला उपदेश उस तीसरी काष्ठ (मंथन काष्ठ) के समान है जो इन दोनों काष्ठों के बीच रखी जाती है। गुरु द्वारा शिष्य को प्रदान किया गया दिव्य ज्ञान इनके संपर्क से उत्पन्न होने वाली अग्नि के तुल्य है, जो अज्ञान के अंधेरे को जलाकर भस्म कर देती है और गुरु और शिष्य दोनों को अत्यंत सुख प्रदान करती है।