श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 1: यदुवंश को शाप  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  11.1.4 
 
 
नैवान्यत: परिभवोऽस्य भवेत् कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्त:कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु-
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥ ४ ॥
 
अनुवाद
 
  भगवान कृष्ण ने सोचा, "यह यदुवंश के सदस्य सदैव मेरे शरण में रहे हैं और उनका ऐश्वर्य असीम है, इसलिए कोई भी बाहरी ताकत इस वंश को परास्त नहीं कर सकती। लेकिन अगर मैं इस वंश के भीतर झगड़े को प्रोत्साहित करूं, तो यह झगड़ा एक ऐसे आग की तरह होगा जो बांस की झाड़ी में घर्षण से पैदा होती है, जिससे मैं अपना असली उद्देश्य पूरा कर सकूंगा और अपने नित्य निवास को लौट सकूंगा।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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