यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत ।
नाधिकं तावता तुष्ट: क्रिया चक्रे यथोचिता: ॥ १५ ॥
अनुवाद
विधाता की कृपा से, उसे रोज़ाना उतना ही मिल जाता था जितना उसे अपने जीवनयापन के लिए चाहिए था, उससे ज़्यादा नहीं। इतने से ही संतुष्ट होकर, वह अपने धार्मिक कर्तव्यों का सही ढंग से पालन करता था।