योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं कल्प: स वाच्य: शोच्य एव स: ॥ २० ॥
अनुवाद
निस्संदेह, वह मनुष्य निंदनीय एवं दयनीय है जो क्षणिक शरीर से महान संतों द्वारा गाई गई चिरस्थायी ख्याति को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है, भले ही वह ऐसा करने में सक्षम होता है।