यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्यय: ।
देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥ २० ॥
अनुवाद
जो व्यक्ति शरीर और आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को नहीं समझता, वह देह से ही अपने अस्तित्व को जोड़कर देखता है और उससे अत्यधिक जुड़ाव महसूस करता है। नतीजतन, शरीर और उसके प्रतिफलों के प्रति लगाव के कारण, वह अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के साथ मिलन और अलगाव का अनुभव करता रहता है। जब तक यह लगाव बना रहता है, तब तक वह इस भौतिक जगत में बंधा रहता है और अपने जीवन को इसी तरह से व्यतीत करता रहता है। लेकिन अगर वह इस लगाव से मुक्त हो जाता है, तो वह इस भौतिक दुनिया से स्वतंत्र हो जाता है और उसे मोक्ष मिल जाता है।