श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 35: कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन  »  श्लोक 2-3
 
 
श्लोक  10.35.2-3 
 
 
श्रीगोप्य ऊचु:
वामबाहुकृतवामकपोलो
वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम् ।
कोमलाङ्गुलिभिराश्रितमार्गं
गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्द: ॥ २ ॥
व्योमयानवनिता: सह सिद्धै-
र्विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जा: ।
काममार्गणसमर्पितचित्ता:
कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्य: ॥ ३ ॥
 
अनुवाद
 
  गोपियाँ कहती हैं : जब मुकुन्द अपनी बाँसुरी पर उँगलियाँ फिराते हैं, अपने कोमल गालों को बाएँ हाथ पर रखकर नाचते हैं, तो देवियाँ अपने पतियों के साथ आकाश में उड़ान भरते हुए हैरान हो जाती हैं। जब ये महिलाएँ वंशी की ध्वनि सुनती हैं, तो उनके मन में कामुक इच्छाएँ जागृत हो जाती हैं और वे अपनी वेदना में अपने ढीले होते कमरबंदों पर ध्यान नहीं दे पाती हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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