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श्रीमद् भागवतम
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अध्याय 32: पुन: मिलाप
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श्लोक 7
श्लोक
10.32.7
अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम् ।
आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा ॥ ७ ॥
अनुवाद
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एक दूसरी गोपी अपनी पलकें झपकाए बिना उनके कमल जैसे चेहरे को देखती रही, मगर जितनी भी उनकी माधुरी का रस लेती, तृप्त नहीं होती थी, जैसे संत पुरुष भगवान् के चरणों का ध्यान लगाकर थकते नहीं हैं।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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