ता: समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभु: ।
विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम् ॥ ११ ॥
शरच्चन्द्रांशुसन्दोहध्वस्तदोषातम: शिवम् ।
कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम् ॥ १२ ॥
अनुवाद
तत्पश्चात सर्वशक्तिमान प्रभु गोपियों को अपने साथ कालिन्दी के किनारे ले गये, जिसने अपने किनारे पर अपनी लहरों के हाथों से मुलायम रेत के ढेर बिखेर रखे थे। उस सुहावने स्थान में खिले कुंद और मंदार के फूलों की खुशबू हवा में घुली हुई थी, जिससे कई भौरे आकर्षित हो रहे थे। शरद ऋतु के चाँद की प्रचुर किरणें रात के अँधेरे को दूर कर रही थीं।