दु:सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभा: ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमङ्गला: ॥ १० ॥
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गता: ।
जहुर्गुणमयं देहं सद्य: प्रक्षीणबन्धना: ॥ ११ ॥
अनुवाद
जिन गोपियों से कृष्ण के दर्शन नहीं हो सकें, उन्हें अपने प्रियतम से अत्यधिक विरह होने लगा, जिससे उनके भीतर कष्टकारी वेदना पैदा हो गयी और इससे सारे पाप कर्म भस्म होने लगे। ध्यान करने से वे गोपियाँ कृष्ण के आलिंगन का एहसास कर सकीं और तब उन्हें इतना आनंद अनुभव हुआ कि इससे उनकी भौतिक धर्माचरण समाप्त हो गई। यद्यपि भगवान कृष्ण परमात्मा हैं, किन्तु ये युवतियाँ उन्हें अपना प्रेमी मानती थीं और उसी घनिष्ठ भाव में उनसे जुड़ी रहीं। इससे उनके कर्म बंधन नष्ट हो गये और उन्हें अपने स्थूल भौतिक शरीरों का त्याग करना पड़ा।