तस्मात्सम्पूजयेत्कर्म स्वभावस्थ: स्वकर्मकृत् ।
अञ्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद
अतः मनुष्य को कर्म की ही सही तरीके से उपासना करनी चाहिए। मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुरूप स्थिति में रहना चाहिए और अपने ही कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। निःसंदेह, जिससे हम अच्छे से जीवन यापन कर सकते हैं, वही वास्तव में हमारा पूजनीय आराध्य है।