अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभि-
र्द्रवत्पुरीष्या: पुलिनै: समन्तत: ।
न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा
भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते ॥ ६ ॥
अनुवाद
गहरी नदियाँ अपनी उठती लहरों से अपने किनारों को भिगोकर उन्हें गीला और कीचड़युक्त बना देती थीं। इस तरह, जहर की तरह तेज धूप की किरणें न तो धरती के रस को सुखा पातीं और न ही इसकी हरी घास को झुलसा पातीं।