क्वचिद्बिल्वै: क्वचित्कुम्भै: क्वचामलकमुष्टिभि: ।
अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यै: क्वचिन्मृगखगेहया ॥ १४ ॥
अनुवाद
कभी ग्वाल बाल बिल्व या कुम्ह के फलों से खेलते और कभी मुट्ठी में आंवले लेकर खेलते। कभी ये एक दूसरे को छूने का खेल खेलते तो कभी आंख मिचौनी के समय किसी को पहचानने का खेल। ये कभी पशुओं और पक्षियों की नकल भी उतारते थे।