श्रीशुक उवाच
उपहार्यै: सर्पजनैर्मासि मासीह यो बलि: ।
वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्निरूपित: ॥ २ ॥
स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागा: पर्वणि पर्वणि ।
गोपीथायात्मन: सर्वे सुपर्णाय महात्मने ॥ ३ ॥
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : सर्पों ने गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए पहले से ही उसके साथ एक सौदा किया हुआ था जिसमें यह तय था कि वे हर महीने एक बार अपनी भेंट वृक्ष के नीचे रख जाया करेंगे | इस प्रकार, हे महाबाहु परीक्षित, हर महीने हर सर्प अपनी रक्षा के बदले विष्णु के शक्तिशाली वाहन को अपनी श्रद्धांजलि देना अपना कर्तव्य समझता था |