कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे
तवाङ्घ्रिरेणुस्परशाधिकार: ।
यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो
विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६ ॥
अनुवाद
हे प्रभु, हमें नहीं मालूम कि इस कालिय सर्प को कैसे वहान का मौका मिल गया कि वह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श कर सके। इसके लिए तो लक्ष्मी जी ने सारी मनोकामनाएँ त्यागकर सैकड़ों वर्षों तक कठोर व्रत रखते हुए तपस्या की थी।