श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 15: धेनुकासुर का वध  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  10.15.8 
 
 
धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्-
पादस्पृशो द्रुमलता: करजाभिमृष्टा: ।
नद्योऽद्रय: खगमृगा: सदयावलोकै-
र्गोप्योऽन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्री: ॥ ८ ॥
 
अनुवाद
 
  अब यह धरती अत्यंत धन्य हो गई है क्योंकि आपने अपने चरणों से इसकी घास और झाड़ियों को, अपने नाखूनों से इसके वृक्षों और लताओं को स्पर्श किया है और आपने अपनी कृपालु दृष्टि से इसकी नदियों, पहाड़ों, पक्षियों और जानवरों को आशीर्वाद दिया है। इन सब से भी बढ़कर, आपने अपनी तरुण गोपियों को अपनी दोनों भुजाओं से आलिंगन किया है, जिस सुअवसर के लिए स्वयं लक्ष्मी जी लालायित रहती हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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