श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 15: धेनुकासुर का वध  »  श्लोक 10-12
 
 
श्लोक  10.15.10-12 
 
 
क्‍वचिद् गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतै: ।
उपगीयमानचरित: पथि सङ्कर्षणान्वित: ॥ १० ॥
अनुजल्पति जल्पन्तं कलवाक्यै: शुकं क्‍वचित् ।
क्‍वचित्सवल्गु कूजन्तमनुकूजति कोकिलम् ।
क्‍वचिच्च कालहंसानामनुकूजति कूजितम् ।
अभिनृत्यति नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन् क्‍वचित् ॥ ११ ॥
मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान् पशून् ।
क्‍वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  कभी-कभी वृन्दावन में भौंरे आनंद में इतने तल्लीन हो जाते थे कि वे अपनी आँखें बंद करके गाने लगते थे। श्री कृष्ण अपने ग्वालमित्रों तथा बलदेव के साथ जंगल में विचरण करते हुए अपने राग में उनके गुनगुनाने की नकल उतारते थे और उनके मित्र उनकी लीलाओं का गायन करते थे। भगवान कृष्ण कभी-कभी कोयल की बोली की नकल उतारते तो कभी हंसों के कलरव की नकल उतारते। कभी वे मोर के नृत्य की नकल उतारते जिस पर उनके ग्वालमित्र खिलखिला पड़ते। कभी-कभी वे बादलों जैसे गंभीर गर्जन के स्वर में झुंड से दूर गये हुए पशुओं का नाम लेकर बड़े प्यार से पुकारते जिससे गायें तथा ग्वालबाल मुग्ध हो जाते।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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