न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा
न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षया: ॥ १० ॥
अनुवाद
जो वाणी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वायुमण्डल को परिशुद्ध करने वाले भगवान् की महिमा का गुणगान नहीं करती, साधु पुरुष उसे कौवों के स्थान के समान मानते हैं। चूँकि परमहंस पुरुष दिव्य लोक के निवासी होते हैं, अत: उन्हें ऐसे स्थान से कोई आनंद नहीं मिलता।