एकदा धनुरुद्यम्य विचरन् मृगयां वने ।
मृगाननुगत: श्रान्त: क्षुधितस्तृषितो भृशम् ॥ २४ ॥
जलाशयमचक्षाण: प्रविवेश तमाश्रमम् ।
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् ॥ २५ ॥
अनुवाद
एक समय की बात है, जब महाराज परीक्षित वन में धनुष-बाण से शिकार कर रहे थे। हिरणों का पीछा करते-करते उन्हें बहुत थकान, भूख और प्यास लग गई। पानी की खोज करते हुए वे प्रसिद्ध शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँचे, जहाँ उन्होंने देखा कि ऋषि आँखें बंद करके शांति से बैठे हैं।