कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्दपादपद्मासवं मधु ॥ १२ ॥
अनुवाद
हमने अभी-अभी इस सकाम कृत्य, यज्ञ की अग्नि को जलाना प्रारम्भ किया है। क्योंकि हमारे कार्य में अनेक अपूर्णताएँ हैं, इसलिए इसके फल की कोई निश्चितता नहीं है। हमारे शरीर धुएँ से काले हो चुके हैं, लेकिन हम भगवान् गोविन्द के चरणकमलों के अमृत रूपी उस मधु से सचमुच तृप्त हैं, जिसे आप हम सबको वितरित कर रहे हैं।