का वा सहेत विरहं
पुरुषोत्तमस्य प्रेमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पै: ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो मम यदङ्घ्रिविटङ्किताया: ॥ ३५ ॥
अनुवाद
तब भला कौन है, जो उस विभु परम पुरुषोत्तम भगवान् से दूर रहकर भी उनके विरह का दाह सह सके? वे तो सत्यभामा जैसी प्रेमिकाओं के गर्व और काम-क्रोध का अपने प्रेम भरे मीठे झुकाव, मधुर दृष्टि और आश्वासन भरे मीठे वचनों से जीत लेने वाले थे। ज्यों-ज्यों वे मेरी धरा पर चलते, मैं उनके चरण-कमलों में धँसती जाती और फिर घास से इस तरह ढक जाती मानो प्रसन्नता के कारण रोएँ खड़े हों।