श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  1.15.18 
 
 
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
सञ्जल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि स्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥ १८ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन्, उनके हास-परिहास व बेबाक बातें अत्यंत सुहावनी होती थीं और मुस्कान से सजी-सजाई होती थीं। "हे पार्थ, हे मित्र, हे कुरुवंशी" कहकर उनका मुझे पुकारना और उनकी संवेदनापूर्ण सहृदयता मुझे अब याद आ रही है और मैं इसको याद करके अभिभूत हो रहा हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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