नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
सञ्जल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि स्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥ १८ ॥
अनुवाद
हे राजन्, उनके हास-परिहास व बेबाक बातें अत्यंत सुहावनी होती थीं और मुस्कान से सजी-सजाई होती थीं। "हे पार्थ, हे मित्र, हे कुरुवंशी" कहकर उनका मुझे पुकारना और उनकी संवेदनापूर्ण सहृदयता मुझे अब याद आ रही है और मैं इसको याद करके अभिभूत हो रहा हूँ।