कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञात: किं वा तात चिरोषित: ॥ ३९ ॥
अनुवाद
मेरे भ्राता अर्जुन, तुम बताओ कि तुम्हारा स्वास्थ्य तो ठीक है न? ऐसा लगता है कि तुम्हारी काया की चमक खो गई है। क्या द्वारका में बहुत समय से रहने की वजह से दूसरों ने तुम्हारा मान-सम्मान और विचार करना बंद कर दिया है? क्या इसलिए तुम ऐसे हो गए हो?