श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 11: भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.11.32 
 
 
तमात्मजैर्द‍ृष्टिभिरन्तरात्मना
दुरन्तभावा: परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयो-
र्विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  रानियों की दुर्दम्य उत्कण्ठा इतनी तीव्र थी कि लजाई होने के कारण उन्होंने सबसे पहले अपने हृदय के भीतर से भगवान का आलिंगन किया। फिर उन्होंने दृष्टि से उनका आलिंगन किया और तब अपने पुत्रों को उनका आलिंगन करने के लिए भेजा (जो खुद ही आलिंगन करने जैसा है)। लेकिन हे भृगुश्रेष्ठ, यद्यपि वे अपनी भावनाओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं, किन्तु अनजाने ही उनके नेत्रों से अश्रु छलक आये।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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