श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 11-12
 
 
श्लोक  1.10.11-12 
 
 
सत्सङ्गान्मुक्तदु:सङ्गो हातुं नोत्सहते बुध: ।
कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृदाकर्ण्य रोचनम् ॥ ११ ॥
तस्मिन्न्यस्तधिय: पार्था: सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलापशयनासनभोजनै: ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  जो बुद्धिमान व्यक्ति शुद्ध भक्तों की संगति से परमात्मा को समझ चुका है और भौतिक कुसंगति से अपने को छुड़ा चुका है, वह भगवान की कीर्ति सुनने से कभी नहीं चूकता; उसने चाहे उनके विषय में एक ही बार क्यों न सुना हो। तो भला, पाण्डव उनसे विरह कैसे सह पाते? क्योंकि वे उनसे घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित थे, वे उन्हें प्रत्यक्ष अपने समक्ष देखते थे, उनके शरीर का स्पर्श करते थे, उनसे बातें करते थे और उन्हीं के साथ सोते, उठते-बैठते तथा भोजन करते थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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