श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 2: महर्षि अगस्त्य के द्वारा पुलस्त्य के गुण और तपस्या का वर्णन तथा उनसे विश्रवा मुनि की उत्पत्ति का कथन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  7.2.22 
 
 
न च पश्याम्यहं तत्र कांचिदभ्यागतां सखीम्।
रूपस्य तु विपर्यासं दृष्ट्वा त्रासादिहागता॥ २२॥
 
 
अनुवाद
 
   वहाँ मैं किसी भी सखी को उपस्थित नहीं देखती। इसके साथ ही, मेरा रूप पहले से ही एक विपरीत अवस्था में पहुँच गया है। यह सब देखकर मैं भयभीत होकर यहाँ आ गई हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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