श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 2: महर्षि अगस्त्य के द्वारा पुलस्त्य के गुण और तपस्या का वर्णन तथा उनसे विश्रवा मुनि की उत्पत्ति का कथन  »  श्लोक 14-15h
 
 
श्लोक  7.2.14-15h 
 
 
तृणबिन्दोस्तु राजर्षेस्तनया न शृणोति तत्॥ १४॥
गत्वाऽऽश्रमपदं तत्र विचचार सुनिर्भया।
 
 
अनुवाद
 
  परंतु राजा तृणबिन्दु की पुत्री ने वह शाप नहीं सुना था। इसलिए, वह बिना किसी डर के अगले दिन भी उसी आश्रम में प्रवेश कर गई और घूमने लगी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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