श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 2: महर्षि अगस्त्य के द्वारा पुलस्त्य के गुण और तपस्या का वर्णन तथा उनसे विश्रवा मुनि की उत्पत्ति का कथन  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  7.2.10 
 
 
सर्वर्तुषूपभोग्यत्वाद् रम्यत्वात् काननस्य च।
नित्यशस्तास्तु तं देशं गत्वा क्रीडन्ति कन्यका:॥ १०॥
 
 
अनुवाद
 
  वन सर्व ऋतुओं में मनोरम और उपयोग में लाने योग्य था। इस कारण कन्याएँ प्रतिदिन उस वन क्षेत्र में जाकर विभिन्न प्रकार की लीलाएँ अथवा क्रीड़ाएँ करती थीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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