अयं च राजा व्यसनाभिभूतो
मित्रैरमित्रप्रतिमैर्भवद्भि:।
अन्वास्यते राक्षसनाशनार्थे
तीक्ष्ण: प्रकृत्या ह्यसमीक्षकारी॥ १७॥
अनुवाद
यह महाराज रावण तो व्यसनों के वशीभूत हैं इसलिए सोच-विचारकर काम नहीं करते हैं। इसके अलावा ये स्वभाव से ही कठोर हैं और राक्षसों के नाश के लिए तुम जैसे शत्रु के समान मित्र की सेवा में उपस्थित रहते हैं।