श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 5: सुन्दर काण्ड  »  सर्ग 43: हनुमान जी के द्वारा चैत्यप्रासाद का विध्वंस तथा उसके रक्षकों का वध  »  श्लोक 2-3
 
 
श्लोक  5.43.2-3 
 
 
तस्मात् प्रासादमद्यैवमिमं विध्वंसयाम्यहम्।
इति संचिन्त्य हनुमान् मनसादर्शयन् बलम्॥ २॥
चैत्यप्रासादमुत्प्लुत्य मेरुशृङ्गमिवोन्नतम्।
आरुरोह हरिश्रेष्ठो हनूमान् मारुतात्मज:॥ ३॥
 
 
अनुवाद
 
  तदनंतर वानरों के श्रेष्ठ हनुमान जी ने मन में विचार किया कि "मैं आज इस चैत्यप्रासाद को नष्ट कर दूँगा।" यह संकल्प करके उन्होंने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए मेरु पर्वत के शिखर के समान ऊँचे चैत्यप्रासाद पर उछलकर चढ़ाई कर दी।॥ २-३॥
 
 
 
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