श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 21: हनुमान जी का तारा को समझाना और तारा का पति के अनुगमन का ही निश्चय करना  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  4.21.16 
 
 
नहि मम हरिराजसंश्रयात्
क्षमतरमस्ति परत्र चेह वा।
अभिमुखहतवीरसेवितं
शयनमिदं मम सेवितुं क्षमम्॥ १६॥
 
 
अनुवाद
 
  मेरे लिये वानरराज श्री राम के साथ रहने से श्रेष्ठ कोई भी कार्य इस लोक या परलोक में नहीं है। युद्ध में वीरता से मरे हुए अपने स्वामी के द्वारा सेवित चिता की शय्या पर सोना ही मेरे लिये सर्वथा उचित है।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकविंश: सर्ग: ॥ २ १॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २ १॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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