श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 20: तारा का विलाप  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  4.20.12 
 
 
नि:श्रेयसपरा मोहात् त्वया चाहं विगर्हिता।
यैषाब्रुवं हितं वाक्यं वानरेन्द्र हितैषिणी॥ १२॥
 
 
अनुवाद
 
  वानरेन्द्र! मैं आपके कल्याण के लिए सदा तत्पर रही और आपके हित के लिए हर संभव प्रयास करती रही। मैंने जो भी बातें आपसे कहीं, वे सब आपके ही हित में थीं, लेकिन आपने मोहवश उन्हें नहीं माना और उलटे मेरी ही निंदा की।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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