श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 2: सुग्रीव तथा वानरों की आशङ्का, हनुमान्जी द्वारा उसका निवारण तथा सुग्रीव का हनुमान जी को श्रीराम-लक्ष्मण के पास उनका भेद लेने के लिये भेजना  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  4.2.17 
 
 
अहो शाखामृगत्वं ते व्यक्तमेव प्लवङ्गम।
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥ १७॥
 
 
अनुवाद
 
  अरे वानरराज! तुम्हारी बन्दर वाली फुर्ती तो इस समय स्पष्ट रूप से प्रकट हो ही गई है। तुम्हारा मन चंचल है। इसलिए तुम अपने आप को विचारों की धारा में स्थिर नहीं रख पाते हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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