श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 88: श्रीराम की कुश-शय्या देखकर भरत का स्वयं भी वल्कल और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  2.88.30 
 
 
प्रसाद्यमान: शिरसा मया स्वयं
बहुप्रकारं यदि न प्रपत्स्यते।
ततोऽनुवत्स्यामि चिराय राघवं
वनेचरं नार्हति मामुपेक्षितुम्॥ ३०॥
 
 
अनुवाद
 
  मैं उनके चरणों पर अपना सिर रखकर उन्हें मनाऊंगा। यदि मेरी बहुत विनती करने पर भी वे लौटने को राजी नहीं होते तो मैं भी उनके साथ वन में रहूँगा। वे मेरी उपेक्षा नहीं करेंगे।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टाशीतितम: सर्ग:॥ ८८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें अट्ठासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ८८॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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