श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 88: श्रीराम की कुश-शय्या देखकर भरत का स्वयं भी वल्कल और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  2.88.17 
 
 
हा हतोऽस्मि नृशंसोऽस्मि यत् सभार्य: कृते मम।
ईदृशीं राघव: शय्यामधिशेते ह्यनाथवत्॥ १७॥
 
 
अनुवाद
 
  मेरी करनी के कारण श्रीराम को सीता समेत अनाथ की तरह ऐसी शय्या पर सोना पड़ रहा है। मैं बहुत क्रूर और दुष्ट हूँ। मैंने बहुत पाप किया है और अब मैं मर गया हूँ। मेरा जीवन व्यर्थ गया।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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