श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 87: भरत की मूर्छा से गुह, शत्रुघ्न और माताओं का दुःखी होना, भरत का गुह से श्रीराम आदि के भोजन और शयन आदि के विषय में पूछना  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  2.87.24 
 
 
ततस्त्वहं चोत्तमबाणचापभृत्
स्थितोऽभवं तत्र स यत्र लक्ष्मण:।
अतन्द्रितैर्ज्ञातिभिरात्तकार्मुकै-
र्महेन्द्रकल्पं परिपालयंस्तदा॥ २४॥
 
 
अनुवाद
 
  तत्पश्चात मैं भी उत्तम बाण और धनुष लेकर वहीं स्थित हो गया जहाँ लक्ष्मण थे। उस समय मैं अपने भाई-बंधुओं के साथ जो नींद और आलस्य को त्यागकर अपने धनुष-बाण लिए लगातार सावधान रहते थे, देवराज इंद्र की तरह तेज से चमकते श्रीराम की रक्षा करता था।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्ताशीतितम: सर्ग:॥ ८७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें सतासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ८७॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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