श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 71: रथ और सेना सहित भरत की यात्रा, अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए सारथि से अपना दुःखपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश  »  श्लोक 37-39h
 
 
श्लोक  2.71.37-39h 
 
 
सम्मार्जनविहीनानि परुषाण्युपलक्षये।
असंयतकवाटानि श्रीविहीनानि सर्वश:॥३७॥
बलिकर्मविहीनानि धूपसम्मोदनेन च।
अनाशितकुटुम्बानि प्रभाहीनजनानि च॥३८॥
अलक्ष्मीकानि पश्यामि कुटुम्बिभवनान्यहम्।
 
 
अनुवाद
 
  मैं देखता हूँ कि गृहस्थों के घरों में झाड़ू नहीं लगी हुई है। वे खुरदुरे और खूबसूरती से रहित दिखाई देते हैं। उनके दरवाजे खुले हैं। इन घरों में बलि वैश्व देवकर्म नहीं हो रहे हैं। ये धूप की सुगंध से वंचित हैं। इनमें रहने वाले परिवार के सदस्यों को भोजन नहीं मिला है और ये सभी घर उदास दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि इनमें लक्ष्मी का वास नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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